Wednesday, June 3, 2015

चिड़िया

चुन चुन कर
 तिनके 
 बुनती है घोसला 
 डैनों पर अपने 
 तोलती है आकाश
 आँधियों से बेखबर 
 चुनती है सपने
 अक्सर बिखर जाते हैं 
 सपने
 मगर बिखरती नहीं वह 
 सहेज कर बिखरे सपने
 जुट जाती 
 पुनर निर्माण में  
झूमता आया जब मधुमास
चहक उठा लो अमलतास
वन हुये लाल खिल गये पलाश
फिर मन मेरा क्यों है उदास ?

व्याकुल हुआ जब  मन पराग
छू गयी मुझे ये किसकी याद
क्या तुमने   मुझको किया याद
मन मेरा हो गया उदास।
डरने लगी है लड़की
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 लड़की अब
 देखती नहीं है सपने
 किसी राजकुमार के  
 उसे नहीं है इंतजार
 सोलहवें बसंत का  
 बसंत की आहट भी
 आतंकित क्र देती है उसे
 बसंत की झोली में रखे
 स्टोव या गैस सिलेंडर से 
 अनजान नहीं है वह
 इसीलिए लड़की
 अब डरने लगी है
 जवान होने से 

Sunday, March 13, 2011

diwar

लड़की चाहती है ऐसा घर १जिसमे हों बड़ी बड़ी खिड़कियाँ .जिनसे होकर आ सके .ताजी हवा और ढेर सी रौशनी ,
 उस घर में हो एक,बुलंद दरवाजा ,जिससे होकर वह जा सके  बाहर, मगर घर में तो हैं ,सिर्फ दीवारें ,  ऊँची ऊँची  दीवारें ,लड़की देख रही है दीवारें ,       

Friday, May 15, 2015


एक औरत
कूट रही है धान
ढेंकी में धान के साथ
कूट देना चाहती है वह
साऱी  बाधाएं
जो खड़ी हो जाती हैं
अक्सर उसके सामने ।

 एक औरत पछोर रही है अनाज
भूसी की तरह
उड़ा देना चाहती है वह
अपने सारे दुःखों को

एक औरत चला रही है छेनी
गढ़ना चाहती है वह
पत्थर पर एक इबारत ।

एक औरत लिख रही है
अपनी कथा
उसे नहीं बींधते
बान  कामदेव के।

प्रिय की याद  में
अपना आपा भी नहीं
खोया है उसने
वह खड़ी है धरती पर
उसने किया है संकल्प
वह बदल देगी
सारे मिथक
जो उसे करते है कमजोर
बना देते हैं उसे
सिर्फ देह ।
औरत अब
अपने हाथों से
गढ़ रही है
अपना वज़ूद

Thursday, March 26, 2015

कुरुक्षेत्र  के मैदान में 
खड़ी द्रौपदी
 सोच रही है
किसके लिये 
आखिर किसके लिये 
हुआ ये महाभारत 
 कहते हैं लोग
हुआ ये मेरे लिये !
नहीं ! मेरे लिये तो 
नहीं हुआ 
ये महासमर। 
होता गर मेरे लिये 
तो हो जाता उसी पल 
जब हुआ था 
 मेरा  चीरहरण। 
मगर नहीं हुआ 
उस दिन। 
 न न मेरे लिये 
 नहीं थी ये लड़ाई
    ये लड़ाई तो थी       
  अंधी  प्रतिज्ञा की। 
ये लड़ाई थी 
धृतराष्ट्री आकांक्षाओं की 
और ये लड़ाई थी उसकी 
जिसने शस्त्र उठाये बिना 
लड़ी और जीत ली 
ये लड़ाई। 
और मैं 
बिना लड़े 
हारी सी
 खड़ी हुँ अकेली 
और कहते हैं  लोग कि 
मेरे लिये। ……… 
 
 
 
 
  
 
 
   
  

Thursday, March 5, 2015

होली का पाकर आमंत्रण
नेता जी घबराये
पल भर देर किये बिन
दौड़े दौड़े आये।
कहने लगे बचाओ हमको
हम न खेलेंगे होली।
हमने पूछा बात है क्या
ये कैसी है ठिठोली ?
तरह तरह के रंग रंगे
पर कभी न कोई फर्क पड़ा
होली के इन रंगों से क्यों
इस  चेहरे का रंग उड़ा ?
कहने लगे अजी सुनिये
तुमसे कुछ न छिपायेंगे
कला तन और काला  मन भी
अब किस पर रंग चढ़ायेंगे
कपड़े भी  गर काले हुये तो
कुर्सी कैसे बचायेंगे