Sunday, December 4, 2011

झर गये सुमन

  रीते सम्बन्ध सभी
 झर गये सुमन
 शब्दों के ठूँठ पर
 भटक रहा मन 
 खोल दिए हमने 
 अर्थों के द्वार
 शब्दों का चाबुक
 अर्थ तार तार
 छिप गये जँगल में
 भाव के हिरन
 खाली है बाँसुरी
  लहरें निस्पंद
 भटक गयी कजरी
 खो गया सावन 
 पीपल की छाँव में
 सुलग रहा मन
 रीते ..........

Sunday, October 9, 2011

बाज़ार

पहले हम
  जाया  करते थे
               बाज़ार |
 जरूरत की चीजें 
 खरीदा करते थे
           बाज़ार से |
 अब हम नहीं जाते
                  बाज़ार |
  बाजार खुद आ गया है
                          घर में |
 हम नहीं जानते  कि
 क्या चाहिए हमें 
 बाज़ार बताता है कि
 हमें क्या चहिये
 क्या जरूरी है
           हमारे लिए |
 हम नहीं करते चिंता
 समय ही नहीं है
            हमारे पास
  कि कुछ सोचें  |
 हमारी सुबह शाम
    और रातों का रिमोट
 अपने हाथों में लेकर
 निश्चिन्त है बाज़ार
 अब घर उसके
  कब्जे में है |  

Thursday, September 29, 2011

नारी

नारी   को 
  देवी मानने वाला समाज 
 उसे इंसान क्यों नहीं मानता
 मेरे मन में कौंधता यह प्रश्न 
 झकझोरता है मुझे |
 पूछती हूँअपने आप से 
 क्यों ?क्यों होता है ऐसा ?
 मन कहता -
 देवियाँ करती है त्याग
 रहती हैं मौन 
 कष्ट में भी 
 बस पालती  हैं  कर्तव्य 
 इसीलिए देवी हैं
 कभी कुछ माँगती नहीं
 अपना अधिकार तो कभी नहीं |
 अपना अस्तित्व खोकर ही
 नारी देवी है
 अर्पण करके सर्वस्व 
 बन जाती है देवी |
 हम उसे देवी तो मान सकते हैं |
 इंसान नहीं |
 इंसान बनते ही नारी
 बन जाती है कुलटा और कलंकिनी
 क्योंकि वह माँगती है
 अपना अधिकार |
 उसे नहीं मालूम
 वह देवी तो बन सकती है
 मगर इंसान नहीं

Saturday, September 3, 2011

गंगा

   गंगा नाम   नहीं                                                                                              
      गोमुख से निकलती
  चंचल धारा का
   गंगा तो नाम है
  एक खामोश प्रवाह का
 जिसमें तिरकर
 शमित होते हैं ताप |
 हिरदय में छिपाकर
  पीड़ा का सागर
   गंगा बन जाती है
  गंगा सागर    

Tuesday, August 30, 2011

विश्वास

विश्वास चादर तो नहीं
 जिसे ओढ़कर 
 बटोरी जाती है 
 बिखरी ऊष्मा ||  
   विश्वास का ताप तो
  पनपता है
 मन की गहराइयों में 
 जिससे टकराकर
   लौट जाती हैं
 सर्द हवाएं  |
   और विश्वास के बिखरते ही
     मन में उगने लगता है
 हिमालय |
  जिसे छूकर
   जम जाती है
     सारी उष्मा |
    छा  जाती है धुंध
 जिसके आर -पार देखना
  हो जाता है मुश्किल |
  बहुत सालता है
   विश्वास का बिखरना |
 

Saturday, August 20, 2011

वह औरत

  भरी दोपहर में वह
 बुन रही है ठंडक 
 खस के तिनकों को 
 बाँधती आँखें
 छण भर देखती हैं
  तपते सूरज को
  फिर सहेजने लगती हैं
   खस के बिखरे तिनके
    अपनी काया को तपाकर वह
       सहेज रही है ठंडक
 उनके लिए जो 
  डरते हैं
  सूरज की आँच से

Sunday, August 14, 2011

तुम आओ ऐसे

 मैंने चाहा था
    तुम आओ जीवन में ऐसे
 जैसे आती है हवा 
        जैसे आती है भोर की
 पहली किरण  |
   जैसे फूटता है अंकुर
  निःशब्द  ,नीरव |
    जैस खिलता है फूल
   अपनी ही खुशबू मे झूमता हुआ |
  मगर तुम आये
  आँधी की तरह
 मेरे वज़ूद को झकझोरते
 तपते सूरज से
 छोड़े तुमने अनेक निशान |
     वट वृच्छ की तरह
   छा गये  तुम |
   सोख लीं तुमने
 सारी कोमलता
 झुलस गयीं 
   सारी आशाए  |
   फिर  भी  निःशेष 
  नहीं हुआ है सब
  बाकी है अभी  थोड़ी  सी नमी |
  और मैं आज भी
      चाहती हूँ कि  
    तुम आओ ऐसे
       जैसे आती है हवा _________________|

Saturday, August 6, 2011

नागफनियों के दिन हैं

मालती अब  खिलना नहीं
  रूप और सुगंध का
दौर नहीं ये
 अब तो  
  नागफनियों के दिन हैं |
 कोमलता   होगी   लहूलुहान 
 तार तार  होगा  दामन
 दे  सको  दंश  तो                                                                                                                                             बेशक  खिलो |                                                                                                                                                  अब  तो                                                                                                                                     
 चुभने चुभाने के दिन हैं |

Monday, July 4, 2011

अब की सावन में

  
    अब की सावन में
 बरसे नहीं मेह
 उठी नहीं कजरी
 कुँवारी ही रह गई
 अमुआ की डार
 बिटिया को मिली नहीं
 हथेली भर मेंहदी 
 प्यासी है धरती 
 प्यासी है चूनर
 उसाँसों से भर गया
 खाली आकाश
  ड्योढ़ी से दबे पाँव
 सरक गया सावन 
 
           
                               
  

Thursday, June 30, 2011

बनानी है चिड़िया

नहीं | अभी नहीं होगा अवसान
   अभी तो मुझे मांगना है
 आकाश से खुलापन और
 धरती से द्रढ़ता
 पानी से तरलता
 और पवन से श्वांस
 फिर बनानी है
 एक चिड़िया
 जो नापेगी 
 सारा आकाश 

Monday, June 20, 2011

सलीब

             मेरे बगीचे में
           ऊग आई हैं नागफनियाँ                                
            उलझती हैं दामन से 
                  बार-बार |
                    मासूम उँगलियों से
                      टपकता लहू
                   पूछता है मुझसे
                     कब तक ढोओगी
                      सम्बन्धों की सलीब
                      आखिर कब तक ?

Sunday, June 12, 2011

कफन

    आज हैरान हैं                                                                                  
 घीसू और माधव
 विस्फरित नेत्रों से 
 वे देख रहे हैं
 बुधिया की आदम लाश 
 पर्वतों और घाटियों से
 रिस रहा है लहू 
 वे आज नहीं मांगेंगे पैसे
 उसके कफन के लिए 
 जिन हाथों ने 
 नोच लिए फटे चीथड़े तक
 उन्हीं के आगे
 कैसे पसारें अपनें हाथ 
 कफन के लिए
 नहीं नहीं अब और नहीं
 
               
                            

Wednesday, June 8, 2011

इक्कीसवीं सदी का द्वार

इक्कीसवीं सदी का द्वार        
  खुला है बजार में
 बाज़ार में हैं हम 
 औरहमारे सपने 
 हमारे सारे सम्बन्ध
 और सारी संवेदनाएं

 बिकेंगी बजार में
 इसीलिए लोग अब  
 खर्च नहीं करते उसे
  हृदय  को बदल दिया  है
 गोदाम में
 वे जानते हैं
 इसी सदी में पड़ेगा
 संवेदनाओं का अकाल
 बहुत ऊँची दरों पर
   बिकेंगी संवेदनाएं
 उन्हें इंतजार है  
 उसी समय का
   

Sunday, May 29, 2011

बच्चा

बच्चा अब देखता नहीं सपने
 परियों के
 अब उसके सपनों में
 आता है सुपरमेन
 एक्सन रिएक्सन से
 भरा होता है उसका सपना
 अब वह सपनें में
 बनता नहीं है राजकुमार
 किसी बुढ़िया के दुःख से अब
 द्रवित नहीं होता
 उसका मन
 सपनों में बच्चा अब
 बनता है बड़ा आदमीं
 नोटों से भरा होता है
 उसका सूटकेश
 बच्चा जा रहा है
 इक्कीसवीं सदी में
 सब कुछ रोंदते हुए 

Wednesday, May 11, 2011

बुधिया

 बुधिया ने शुरू किया था
 अपना सफर  बारात के साथ
चलती रही वह बारात के
 साथ साथ .
मगर बारात कभी
रुकी नहीं उसके द्वार 
उसके सर पर है
रोशनी का ताज
मगर रोशनी
 कभी ठहरी नहीं
 उसके द्वार
चिराग तले अंधेरा
को चरितार्थ  करती वह चल रही है                           
आज भी
बारात के साथ साथ

Saturday, April 30, 2011

गुड़ियों से खेलती बच्ची 
   नहीं जानती
  गुड़ियों का खेल है
 उसकी जिन्दगी
 यहीं से खिचती है i  
 एक लक्छ्मन रेखा
 जिसके पार वह
 लड़की है
 लड़की अर्थात गाय
 जो प्रतिवाद में 
 फटकारती नहीं सींग
 मरकही की संज्ञा पा
 वंचित न हो जाये खूंटे से
 इसीलिए घुमती है
 खूंटे के इर्द गिर्द

तिरंगा

 तिरंगा
  हवा में लहराता तिरंगा
 पूछता है मुझसे
  आखिर कब तक
  मैं ढोऊंगा
 इन रंगों का भार
  कब तक फहराऊंगा मैं
 यूँ ही निरर्थक 
 कब? आखिर कब ?
 समझोगे तुम 
 इन रंगों का महत्व ?

Thursday, April 7, 2011

मेरे शहर की पगली


मेरे शहर में
 रहती थी एक पगली 
 धूल मिट्टी से सनी
  नंगी देह लिए
 डोली थी वह .
 असाधारण नहीं था 
 उसका यूँ  नंगी डोलना
 अपने आप से यूँ ही बोलना .
 असाधारण तो है
 उसका मरना
 वह मरी न थी
 शीत और ताप से .
 भूख में भी बची रही थी
 उसकी जिजीविषा .
 मगर आज मर दिया उसे 
 उसकी ही देह ने
 पागल ही सही 
  उसके पास एक
 देह तो थी
 देह जो हर
 हाल में
 होती है
 सिर्फ और सिर्फ देह

Saturday, April 2, 2011

श्रद्धा
 प्राकृतिक है 
 कृत्रिम नहीं 
 पनपती है जमीन में
 फूटता है अंकुर
 हिर्द्यतल से
 हल्की सी चोट से
 टूटता पल में
 बेशक गमला कीमती होता है
 और बिकाऊ भी 
 श्रद्धा अमूल्य है
 बिकती नहीं
 और इसीलिए वह
 गमले में पनपती नहीं
 

Tuesday, March 29, 2011

डरने लगी है लड़की


लडकी अब
 देखती नहीं सपने  
 किसी राजकुमार के 
 उसे नहीं इंतजार
 सोलहवें बसंत का 
 बसंत की आहट भी
 आतंकित कर देती है उसे
 बसंत की झोली में रखे
 स्टोव या गेस सिलेंडर से 
 अनजान नहीं है वह
 इसीलिए लडकी अब
 डरने लगी है
 जवान होने से 

Sunday, March 27, 2011

गोदना के फूल


आज की ये पंचायत मामूली नहीं है। इस गांव की ही नहीं समूचे देश की ऐतिहासिक पंचायत है ये। यह वही गांव है जहां ऐसा मामला कभी उठता ही नहीं था कि पंचायत की नौबत आती। छोटे छोटे मसले जरूर थे, जिसे गांव के बड़े बूढ़े 'भातÓ से निपटा लेते थे। इसीलिए पंचायत की बात पर सारे गांव का ही एक स्वर था-हमें पंचायत की क्या जरूरत, हमें नहीं चाहिए पंचायत। मगर लोगों के चाहने न चाहने से क्या होता है। पंचायत बनी और राजधानी से हजारों मील दूर वनवासी गांव मुख्य धारा से कुछ ऐसा जुड़ा कि सब कुछ बदल गया। आज तो उसे हिसाब देना है अपनी जि़न्दगी का। उसे बताना है कि वह कौन है? उसका धर्म और उसकी जाति क्या है? हैरान है वह! उसने आज से पहले कभी सोचा ही नहीं था कि ये बातें तो कभी उभरी ही नहीं कि वह कौन है? हिन्दू या मुसलमान?...
उसके डेरे में हिंदू रीति-रिवाज भी माने जाते थे। इसीलिए वह हिन्दू है और करीम का साथ होने के कारण वह मुसलमान भी कही जाती है। मगर वह खुद क्या है? केंवरा झांकती है अपने भीतर और अतीत की सीढिय़ां उतरती चली जाती हैं...
गांव में हर साल आता था डेरा, देवारों का डेरा। वे घुमक्कड़ थे, उनका स्थाई निवास नहीं था। जिस गांव में डेरा डालते वही उनका अपना हो जाता। रातों रात उनकी बस्ती बस जाती और पलभर में डेरा सिमट भी जाता था और वे चल देते थे। डेरे के पुरुष बंदर, भालू नचाते थे। तरह तरह के करतब से मन मोहकर भालू के बाल की ताबीज भी बनाते थे।

उनकी औरतें गोदना गोदती और सिल टांका करती थीं। गांव की संस्कृति में ये दोनों ही चीजें रची बसी थी। सिल रसोई का आधार थी तो गोदना जीवन का। डेरे वाले देवार-देवारिन के नाम से जाने जाते थे।
ऐसे ही किसी डेरे के साथ आई थी वह। सांवली सलोनी केंवरा (केवड़ा) और केवड़ा सी महकने लगी थी सारे गांव में। अपने स्वर के जादू के बीच वह गोदना के फूल काढ़ती चली जाती थी। उसके होठों से फिसलता गीत -
गोदना गोदवा ले मोर रानी,
ये गोदना तो पिया के निशानी।
मन में पिरीत अऊ,
आंखी में पानी।
गोदना गोदवा ले...
ये गोदना तो निसैनी सुरग के,
सुफल हो जाय जनम जिन्गानी

गीत के बीच उठती सिसकियां और आंखों से बहते आंसुओं के बीच ललनाओं के हाथ फूलों से भर जाते थे। उस पीड़ा में भी एक मिठास थी, प्रेम की मिठास। फिर पुरौनी गोदना भी जरूरी था। केंवरा बड़े मनुहार से कहा करती-एक टिपका मोर डहर ले। ऊं...पईसा-वईसा झन देवे। सैंया के चुम्मा मोर डहर ले बिन पईसा के। कहते हुए एक शरारत उसकी आंखों में खेलने लगती थी। और लजाती, सकुचाती ललनाएं अपना चिबुक सामने कर देती थीं, जिस पर केंवरा उकेर देती थी एक नीला तिल।
अबकी बार यह डेरा कुछ ज्यादा ही ठहर गया था। कारण देवपुर की मड़ई थी। कुछ ही दिन बचे थे इस मड़ई में। गांव व शहर दोनों में समान रूप से लोकप्रिय यह मड़ई अपने आपमें अनुपम थी। जहां शहरवासी इस मड़ई में वनवासी सौन्दर्य में डूबते उतराते वहीं ग्रामवासी अपनी तमाम जरूरतों की पूर्ति भी करते थे। इसलिए यह मड़ई गांवों से लेकर राजधानी तक लोकप्रिय हो गई थी। चूड़ी बिंदी से लेकर गाय-बैल, तीतर-बटेर तक का सौदा होता था मड़ई में। प्रेमिका को कंघी देना ही उनके प्रेम का इजहार था। इसलिए मड़ई तरह तरह की रंग बिरंगी कंघियों से भरी रहती थी। डेरे को भी इस मड़ई ने बांध लिया था-गांव गांव भटकने से तो मड़ई में तमाशा दिखाना ज्यादा अच्छा था।
यहीं इसी मड़ई में तो करीम मिला था। गोदना गोदती केंवरा और चूडिय़ां पहनाते करीम की आंखें मिली थीं फिर अक्सर मिलने लगी थी। करीम को देखते ही केंवरा की शरारती आंखें चमक उठती-तहुं गोदा ले न जी गोदना। कहती केंवरा अकारण खिलखिलाकर हंस देती। लजाना, झिझकना कहां जानती थी वह और वह कहां जानती थी कि जिस गोदना की बात वह इतनी सहजता से कह रही है, वही इंसान को इंसान नहीं हिंदू या मुसलमान बना देता है।
तब करीम भी ऐसा नहीं था। तभी तो उनके मन के तार जुड़ते चले गए थे। दूरियां मिट गई थीं और उस दिन दीन ईमान को ठेलकर करीम ने अपनी बाहें फैला दी थीं-ले न मेरे हाथ में भी गोदना गोद दे आज-कहते करीम की आंखों में प्रेम का सागर हिलोरें ले रहा था और उस सागर में डूबती केंवरा ने उकेरे थे फूल हाथ पर सुई से और हृदय पर अपनी सपनीली आंखों से न जाने कितने फूल। मड़ई का आखिरी दिन था और डेरे का भी। मगर केंवरा के सामने एक नहीं दो मंजिलें थीं। एक अनजानी और दूसरी जानी पहचानी। एक गतिशील तो दूसरी खूबसूरत मुकाम पर ठहरी हुई। फैसला उसे ही करना था। आज उसे चुननी थी अपनी मंजिल और फिर उसने अपनी मंजिल चुन ली थी।
उस शाम लौटने वालों के झुंड में केंवरा नहीं थी। सबकी अपनी थी। इसीलिए डेरे में अनेक आंखें नम होकर लौट रही थीं। फिर वहीं पीपल की छांव में बन गया था उनका घर। बिना शर्त, बिना बंधन बंध गए थे वे। फिर तो काया और छाया को चरितार्थ करती उनकी जोड़ी प्रेम की मिसाल ही बन गई थी। वह अब गोदना गोदने के साथ ही चूडिय़ां भी पहचानने लगी थी। अब दो संस्कृतियां साथ साथ बह रही थीं।
फिर न जाने कहां से करीम के रिश्ते नाते उग आए थे। न जाने कितने रिश्तेदार घेरने लगे थे उसे और रिश्तों में जकड़ता करीम भी बदलने लगा था। स्नेहिल बंधन के बाद निकाह क्यों जरूरी हो उठा, वह भी आज इतने वर्षों के बाद, अचानक? केंवरा तब समझ नहीं पाई थी। उसे यह भी समझ में नहीं आया था कि करीम ने चूड़ी पहनाने का पुश्तैनी कला क्यों छोड़ दिया। और एक दिन केंवरा ने देखा-करीम के हाथ पर फफोले उभर आए हैं। बड़े बड़े स्याह फफोले। पूछने पर बड़ा रुखा-सा जवाब मिला था-नाल गरम करते समय कलाई से छू गई। उस दिन वह समझ नहीं पाई कि नाल ने उसकी निशानी को ही क्यों छुआ। जब समझा तो लगा कि वह फफोला करीम के हाथ पर नहीं उसके हृदय पर उभरा है। अब उसे गोदना गोदने की इजाजत नहीं थी। लोगों के घर जाने की सख्त मनाही थी उसे। गांव से गोदने का बुलावा आता तो वह मन मारकर टाल जाती कि उसका जी ठीक नहीं है। मरती हुई कला के साथ मर रही थी वह। गोदना के वे फूल अब मुरझा गए थे। मर गया था वह गीत, बुझ गई थी वह मुस्कान जो उसकी पहचान हुआ करती थी और छीज गई थी केंवरा। उस दिन तो जैसे बावली सी हो गई थी। गौटिया की बेटी ने बुलाया था उसे। गौने से लौटी थी वह। किसलय से कोमल प्रेम से भरी भरी। केंवरा की प्यारी सखी थी वह। केंवरा ने कहा था उससे जब तुम्हार बिहाव हो ही, तब मैं तुम्हार हाथ में तोता-मइना गोदहूं। पुराने दिन जैसे लौट से आए थे।
टोकरी में सुई, भेलवा और जड़ी-बूटी सहेजता मन से आज मड़ई की ओर लौट रहा था कि एकाएक सहेजा हुआ सब बिखर गया था। करीम की ठोकर से टोकरी दूर छिटक गई थी।
आज भर जाने दे। फेर कभू नई जॉब। तोर किरिया। कहती केंवरा के स्वर में मनुहार था और थी प्रेम की सौगंध।
मगर करीम के कानों में वह शक्ति कहां थी कि वह उन मनुहार भरे शब्दों को सुन पाता। साली काफिरों के घर जाएगी खसम करने। जी भर गया है न मुझसे तो करीम को खा रही है कि जल्दी मर जाऊं मैं। और तू आजाद घूमे। गली गली गोदना गोदने, गाना गाने के लिए, वेश्या कहीं की। कथन के साथ ही इतनी जोरदार ठोकर पड़ी कि केंवरा बहुत दूर तक छिटक गई थी। साली तू समझती क्या है? तेरी औकात क्या है? तू तो इस्तिंजा का ढेला है ढेला। इस्ंितजा किया और फेंक दिया। समझ गई न तू। और शब्दों में भरी यह हिकारत केंवरा को मथ गई थी। पुरुष का यह रूप! उफ! भाषा से अनजान रहकर भी वह अर्थ से अनजान तो नहीं थी।
आज महसूसा था उसने, आज जाना था अपना महत्व। करीम तो जा चुका था, मगर उसके शब्द ठहर गए थे। बार बार पैरों को जकड़ा। मगर वह रुकी नहीं। पीछे देखना अब संभव नहीं था।
सखी के हाथ में खूब मन लगाकर बनाई थी जोड़ी, तोता मैना की जोड़ी और नीचे लिखा था उनका नाम मोहन राधा। आज गोदना गोदती आंखों के सामने बार बार उभर रही थी वह कलाई जो कभी गोदना के फूल उकेरे थे। सखी प्रसन्न थी, प्रसन्न थे गौटिया भी। वे पिता जो थे। उन्होंने दस का नोट बढ़ाते हुए कहा था-यह तुम्हारी मेहनत की कीमत है, प्रेम की नहीं। नईं बाबू जी पइसा देके हमार अपमान झन करो। पइसा नहीं आज तो तुम्हार आसरा चाही। कहती केंवरा के आंसुओं ने उसकी व्यथा कह डाली थी। गौटिया ने सोचा विचारा और अपनी बखरी के पीछे की कोठरी उसे दे दी।
दिन बीतते रहे, मगर करीम नहीं आया। क्यों आए वह, दोहरी शक्ति थी उसके पास। अब गांव बदलने लगा था इधर गौटिया भी बदलने लगे थे। उनके घर पर अब रोज रोज लोग जुटने लगे थे। रंग बिरंगे गमछाधारी लोग। कभी कभी उसकी कोठरी की ओर इशारा भी करते। ठहाके लगाते और चले जाते। केंवरा जानना चाहती थी वह सब, मगर कौन बताता?
फिर एक दिन पंचायत ने बुलावा भेजा था। करीम ने दावा किया था उस पर कि वह उसकी पत्नी है, इस नाते से उसे किसी और के घर नहीं उसके घर में रहना चाहिए। वह समझ में नहीं पाई कि जिसके इंतजार में वह आज भी पलकें बिछाए है, वह उसे घर ले जाने के बजाय पंचायत में क्यों बुलवा रहा है। अपनी नासमझी में वह गौटिया के पास दौड़ी गई थी-बाबू देखन ये कागद भला येकर का जरूरत है। मैं तो आज तक ओकरे नाव से चूड़ी पहने है। गला रुंध गया था। उसे विश्वास था कि गौटिया करीम को बुलाकर फटकार लगाएंगे और करीम उसे ले जाएगा। मगर गौटिया ने उस कागज को अपने पास रख लिया था। जैसे वह कोई अमूल्य निधि हो।
पंचायत अब बार बार बैठने लगी थी। हर बार उसे अहसास दिलाता कि वह औरत है। औरत! जिसका अपना कोई वजूद ही नहीं है, जिसकी छाया उस पर पड़ जाती है वह उसी जाति, उसी धर्म में शामिल हो जाती है अपने आप। करीम के पक्ष ने पुख्ता प्रमाण दिया कि केंवरा हिंदू तो थी, मगर अब वह हिन्दू नहीं है। उसे मुसलमान बनाकर ही उससे निकाह किया गया था। इसलिए वह अब मुसलमान है। इस बात के गवाह थे कि मौलवी जिन्होंने केंवरा को करीमन बनाया था।
पंचायत में ऐसी ही लंबी लंबी बहस होती थी। वह दोनों पक्षों की बात सुनती, प्रश्न पूछती मगर कुछ नहीं पूछा गया उससे, नहीं पूछा गया कि वह अपने को क्या मानती है। फैसला तो उसके जीवन का था फिर भी औरों से पूछा जाता रहा, उससे नहीं। उसके डेरे में तो ऐसा नहीं था। वहां तो औरतें पंचायत का फैसला दिया करती थीं। वह चाहती थी कि इस पंचायत की महिला पंच उसकी पीड़ा को समझकर उसकी बात कहें। मगर वे तो कुछ बोलती ही नहीं थी। बस हर बात पर मुंडी हिला देती थीं। केंवरा को उन पर क्रोध आता-क्या सिर्फ मुंडी हिलाने के लिए ही उसने उन्हें अपना वोट दिया था।
 डेरे के समाज और इस समाज में बहुत अंतर था। उस अंतर को केंवरा समझने लगी थी। कोई बात नहीं, लड़ेगी वह अकेली ही। वैसे भी इस दुनिया में कौन लड़ता है किसी और की लड़ाई। न जाने कितनी जोड़ी आंखें उस पगडंडी पर टिकी थीं जिससे होकर आना था उसे।
और वह आ रही थी। सर से पैर तक चादर में लिपटी एक काया। पंचायत के बीच आकर ठहर गई थी। करीम के समर्थक गुट ने चादर देखी और खुश होकर टोहका लिया था। दूसरा वर्ग भी निराश नहीं था। चादर तो बाहरी आवरण था। मन जब चाहा ओढ़ लिया और जब चाहा उतार फेंका। बीच पंचायत में खड़ी केंवरा भी देख रही थी उन्हें। उनकी चमकती आंखों को। अब वह अनजान नहीं थी उस चमक से। वह अब केंवरा से रु-ब-रु थी—
तुम्हारा नाम? एक पंच ने पूछा था।
तुम्हारी जाति? तुम्हारा धर्म! क्या है? पंचायत जानना चाहती है कि केंवरा के मन में अंधड़ उठा, मगर वह खामोश ही रही।
भीड़ से कुछ शब्द उठे थे—हिन्दु-मुसलमान देवार। शब्द उछले और फिर खामोश हो गए। शायद केवरा की आंखों के ताप से डर गए थे।
बोलो केंवरा पंचायत तुमसे पूछ रही है। ये गौटिया थे। इन नागों के नागराज थे वे।
पंचायत केंवरा बाई का बयान चाहती थी ताकि दूध का दूध और पानी का पानी अलग किया जा सके। मगर केंवरा बाई की खामोशी ने पंचायत के इस काम में बाधा डाली है। केंवरा के मौखिक बयान के अलावा उसके पास एक बयान और भी है। उसके शरीर पर गुदा गुदना, जो यह प्रमाणित करता है कि केंवरा बाई हिन्दू है। पंचायत जानती है कि गोदना हिन्दू धर्म की निशानी है। वैसे हमारे देवार भाई हिन्दू ही हैं। इसलिए यह पंचायत केंवरा को हिन्दू मानते हुए करीम का दावा खारिज करती है। पंचायत अपने प्रमाण के तौर पर केंवरा के शरीर पर गुदे गोदने को सब पंचों के सामने बतौर गवाही रख रही है।
एक सदस्य ने सबसे आगे बढ़कर केंवरा की चादर खींच ली थी। मगर यह क्या?
पंचायत आवाक थी। सारे शरीर पर फफोले ही फफोले। केंवरा अब भी खामोश थी मगर फफोले बोल रहे थे। उस क्षण करीम का पौरुष और ऊंचा हो गया था।
तूने मेरी लाज रख ली, गर्व से भरा भरा स्वर उभरा था। उसे लगा था जैसे केंवरा ने गोदना के चिन्हों को उसके लिए ही मिटा दिया था। अगर ये न होती तो आज वह बिखर जाता, समाज को क्या मुंह दिखाता। कैसे सह पाता यह सब। कउन घर? केंवरा के इन शब्दों ने करीम को हिला दिया था। आज केंवरा की यह खामोशी जो बोल रही थी उसके सामने करीम के वे हिकारत भरे शब्द भी हार गए थे और वह सहमकर पीछे हट गया था।और वह लौट रही थी, उसने गोदना के फूलों को मरने से बचा लिया था। अब वे जिएंगे उसके साथ साथ और उसके बाद भी। वह जिन्दा रखेगी उन्हें। कभी मरने नहीं देगी। केंवरा के होठों पर आज फिर मचल उठा था वही गीत जो कभी उसकी अपनी पहचान था। मगर आज उस गीत में दर्द की लय बहुत ऊंची हो उठी थी।

Saturday, March 26, 2011

मै भी बन जाती मीरा

अगर मुझे मिल जाती
 एक समूची पीड़ा
 तो मैं भी
 बन जाती मीरा


 मगर मुझे मिली
 टुकड़ों में बँटी
 विखंडित पीडाएं  
 जिन्हें सहेजने में ही
 गुजर गया जीवन .

Tuesday, March 22, 2011

एकता

 साम्प्रदायिकता की आँच
 राजनीति की रोटियाँ
 देश है शतरंज 
 स्वार्थ की गोटियाँ
 हर एक दे रहा है
 दूसरे को मत
 आप कर रहें हैं
  एकता की बात ?

Monday, March 21, 2011

वास्तु


बिटिया चाहती है
 कि पोंछ दे
 पिता का पसीना 
माँ के दुखों को
 दे दे एक छप्पर
 कि गुनगुनी धूप में
 सूखती बढ़ियों से
 सूख जाएँ सारे दुःख
 इसी लिए वह सजती है
 बार -बार .
 और मुखोटे
 परखते  हैं उसे
 फिर बढ़ जाते है    आगे 
  बेहतर
वस्तु की तलाश  में ,

हल्दी की गांठ

 माँ अब बुनती नहीं  स्वेटर
 सलाई से फिसल जाते हैं फंदे 
 आँखों में ठहर गई है बिटिया
  कल तक जो पुतली थी आँखों की 
मोतिया सी सालती है दिन रात
  मगर मंहगाई के साथ चढ़ता योवन
 अनभिग्य है बाजार से
 कितनी मंहगी है हल्दी की
 एक गांठ 

Monday, March 14, 2011

तिरिया जनम

 
  उसके हाथ थपकियॉं दे रहे थे। मगर मन भटक रहा था। आज गहरे तक आन्दोलित हो उठी थी वह । सभ्यता के नित नये सोपान गढ़़ते समाज के इस रूप ने तों, उसे झकझोर ही दिया था।
    विचारों के साथ कभी थपकियॉं तेज हो उठती, तो कभी धीमी। इससे तो शायद पहला जमाना ही अच्छा था। धर्म की ढाल मनुष्य को मनुष्य तो बनाये रखती थी। मगर आज ? आज तो सिर्फ विज्ञान है, जिसकी ओट में सारे अत्याचार-सदाचार हो गये हैं । विचारों के भॅंवर में डूबकर बहुत दूर निकल गई वह-
    एकाएक मुन्नी के सिसकने से वह वापस अपनी दुनिया में लौटी उसने देखा नींद में भी उसके चेहरे पर पीड़ा की रेखायें बरकरार थीं। थपकियों के साथ वह दर्द की इबारत पढ़ रही थी। दर्द जिसकी परिभाषा से तो नन्हा सा मन अभी अछूता था, मगर उसकी पीड़ा भोगने को विवश था। कैसी है ये विवशता....?
    लोग कहते है कि जमाना बदल गया है। शायद बदला भी है। तभी तो शोषण ने ऐसे-ऐसे रूप धरे है कि ......? कुछ भारी भरकम शब्दो के बवंडर जरूर आये। मगर उनसे क्या मिला ? हॉं। नारी स्वंय इस नारी-मुक्ति की अगुआ बनी बैठी है। इस स्वतंत्रता के पीछे छिपे भोगवाद को वह चाहकर भी समझना नहीं चाहती । इस न समझने के बहाने क्या वह अपना पिछला सब भूलना चाहती है ? मगर। अतीत को भूलकर सिर्फ वर्तमान में जीना क्या संभव है ? नहीं। अतीत की नींव पर ही वर्तमान की इमारत खड़ी होती हैं।
    उसके मन ने इसकी आहट पा ली थी शायद इसीलिए ऐसी मुक्ति की चाह ने उसे कभी नहीं घेरा था और समाज की सारी व्यवस्थाओं को चुपचाप स्वीकार लिया था उसने । बॉंट दिया था अपने आपको, अनेक-अनेक टुकड़ों में ...........
    मम्मी, पापा और सुधीर सबके हिस्से थे उसके भीतर/नहीं था तो अपना कोई हिस्सा। उसने कभी सोचा भी तो नहीं कि इन सारे टुकड़ों से परे भी कुछ है। अपना निज भी होता है, उसने जाना ही न था। फिर भी ....? मगर आज वह महसूस कर रही है कि अपना निजत्व कितना-कितना जरूरी होता है। वह देख रही थी अपने भीतर , अपने टुकडों को ..........
    अनेक टुकड़े थे उसके कोई एक टुकड़ा बेटी था, तो कोई एक बहन, एक टुकड़े में वह शायद पत्नी थी। शायद इस शब्द का प्रयोग ही सार्थक है। फिर भी कोई इंसान एक साथ इतने टुकड़ों में कैसे  बटा, यह जानने की फुर्सत किसे थी। यू वह इंसान थी भी कहां । समाज औरत को इंसान मानता ही कब है। उसके मापदन्डों पर तो औरत या तो देवी है, या फिर कुलटा/बीच का कोई मार्ग ही नहीं है उसके लिए बीच को साधारण राह पर तो इंसान चलते हैं . . .  दृश्य आते-जाते, बनते-बिगड़ते रहे ।
    इन्हीं दृश्यों के बीच उभर आया बचपन। खिलौनों का अम्बार, तरह-तरह के रसोई के साजो-सामान और सुन्दर नाजुक गुडिय़ा। गुडिय़ा से खेलते मन में हर पल उतरती जा रही थी गुडिय़ा/और आशा आकांक्षा से परे वही निर्जीव गुडिय़ा उसमें कब बैठ गई थी वह कहॉ जान पायी थी भला ।
    हॉ । एक बार विरोध किया था शायद . . . भैया के हवाई जहाज को लेकर मचल उठी थी वह । मगर बड़ी खूबसूरती से मॉ ने मना लिया था उसे  और फिर उसकी नजर में गुडिय़ा हवाई जहाज से ज्यादा खूबसूरत हो उठी थी ।
    सीमायें ऐसे ही बंधती हैं और उसके भीतर बैठी गुडिय़ा ने अपने को बांध लिया था, उन सीमाओं में/बॉट दिया था अपने आपको और फिर विभाजन का एक लम्बा सिलसिला बना गया था उसका जीवन . . . ।
    पहला विभाजन मम्मी-पापा के बीच । मम्मी की चाहत घरेलू लडक़ी सर्वगुण सम्पन्न जो आगे चलकर दोनों कुल को रोशन बनाये और पापा उसे कुशल वकील बनाना चाहते थे। बुद्धि कौशल में पारंगत और परस्पर विरोधी धाराओं में डोल रही थी वह जिधर लहर तेज होती वह उधर ही बह जाती। विपरीत धारा के चपेड़े छोलते रहे उसे/फिर भी पापा की इच्छा उसने पूरी की। आज वह एल.एल.बी. डिग्रीधारी है ।
    साथ ही मम्मी की कसौटी पर भी कसा अपने को। सिलाई, कढ़ाई, कुकिंग। फिर भी कुछ था, जो रह ही गया था। पूरी कोशिश के बाद भी कुछ था जो उसमें समा नहीं पाया था। क्या? वह भी कहॉ जान पायी थी और जब जाना ???
    लहरे और-और तेज हो उठी थी और उनमें डोलती वह लड़ रही थी अपने आपसे । एक विकराल लहर आयी और अपने साथ ले गई पीछे-बहुत-पीछे . . .
    उसके भीतर सुधीर का जो हिस्सा था . . . . ? उसके लिए शायद पर्याप्त नहीं था वह। उसे पत्नी के रूप में चाहिए थी फिल्मी नायिका जो परेशानियों में भी मुस्कान परोसती रहे और उसकी ये अपेक्षायें नई भी तो न थी . . .  । सदियों पुराने धर्मग्रंथो ने भी तो यही व्यवस्था की थी। भोजन से लेकर शय्या तक की भूमिका निर्धारित की गई है उसके लिए ।
मगर पुरूष ? उसकी भी भूमिका तय है और वह अपनी भूमिका के प्रति सजग भी है। तभी तो उसके स्वामित्व पर ऑच आई नहीं कि . . .? देखे, सुने और भोगे हुए अनेक दृश्य उभर आये . . .
ऐसा एक तरफा विधान। ऑखों में मनु उतर आये थे फिर चेहरे बदलने लगे । राम, कृष्ण युधिष्ठिर एक के बाद एक चेहरे आते रहे और अब वहॉ सुधीर का चेहरा था।
मर्यादा, धर्म, न्याय और तथाकथित सभ्यता के सारे प्रतिनिधि मौजूद थे वहॉं/ युगों का अन्तराल था, मगर स्थितियॉं बिल्कुल वहीं। हॉं, मुखौटे जरूर बदल गये थे ऑखों में उतर आयी थी वही शाम . . .
ममता और स्नेह से लबालब भरी थी वह शाम। इन्तजार के वे बेकरार पल ऑखों में मचल रहे थे। कितना सुखद था सब । बिल्कुल स्वप्न लोक सा। एक उष्मामन की गहराइयों से उठी थी, जिसे सुधीर तक पहुंचाने के लिए आकुल थी वह।
और फिर इंतजार खत्म हुआ था। सुधीर के आते ही उसने अपनी सारी उष्मा सुधीर में रोप दी थी। क्षणभर को लगा कि अब दोनों तक ही धरातल पर हैं । मगर . . . शाम में रात की कालिमा उतर आयी थी।
‘‘तुम डॉ. कुलकर्णी से और भी सारे चेक अब करा लो।‘‘
‘‘अरे। ऐसे क्या देख रही हो । भई मैं चाहता हूँ  तुम सोनोग्राफी करवा लो। जब विज्ञान ने सुविधा दी है तब रिस्क क्यों लिया जाय। मैं लडक़ी का रिस्क नहीं चाहता‘‘- कहते हुए चेहरा इतना सपाट था कि जैसे यह बात उनसे नहीं किसी और से संबंध रखती हो ।
इन बातों का अर्थ न समझे, ऐसी मूर्ख तो वह नहीं थी। पहली बार समझ उसके भीतर तक उतरती चली गई । तथाकथित सभ्य समाज के इस रूप ने उसे भीतर तक आहत कर दिया था।
    इन बातों का अर्थ न समझे, ऐसी मूर्ख तो वह नहीं थी। पहली बार समझ उसके भीतर तक उतरती चली गई । तथाकथित सभ्य समाज के इस रूप ने उसे भीतर तक आहत कर दिया था।
    वह अनु जो आज तक व्यवस्था को मुस्कराकर स्वीकारती आयी थी आज पलभर को कहीं और चली गई थी, और उसके स्थान पर उग आयी थी एक नई अनु। सब कुछ उलट-पलट देने को आतुर । अब तक की दबी चिन्गारियॉं आज लौ में बदलने को व्याकुल थी। मगर पुरानी अनु ने संभाला था उसे ।
    एक अजन्में जीवन को समाप्त करने के लिए वह तैयार न थी। मगर विद्रोह के लिए जो आलम्बन चाहिए वह कहॉं था उसके पास । कहने को तो सभी थे, अपने नितान्त अपने मगर वह अपना कल देख रही थी । एकाएक नितांत अकेली हो। जायेगी वह, उसके अपने ही विरोधी हो जायेगे यह बात जानती थी वह। अकेले चहुँ तरफ़ा   वार झेलने के लिए जो सब चाहिए वह कहॉं था उसमें। कोई बात नहीं ...। अनु विद्रोह नही करेगी मगर........ और अपने विद्रोह को झूठ का जामा पहना कर पहला कदम बढ़ा दिया था उसने। बाहर सब कुछ वैसा ही रहा। बिल्कुल शॉंत पहले की तरह। आज पहली बार उसने अपने लिए दी गई व्यवस्था का विरोध किया था । शब्द रहित खामोश विरोध।
    अब सुधीर बेहद प्रसन्न थे और बेटे का पिता बनने का गर्व दिनोदिन बढ़ रहा था । अब वे एक अच्छे पति की भूमिका में थे। अपनी अमानत की सुरक्षा के प्रति सजग।
    मुन्नी के जन्म के चौबीस घंटे बाद सुधीर से साक्षात्कार हुआ था। और उसने देखी थी सुधीर की तिरस्कार एवं घृणा से लबालक ऑंखें । मगर लोगों ने देखा उन्ही ऑंखो में तिरती मोहक मुस्काने और ओठो पर मचलत जुमले जो बेटी के जन्म पर उछाले जाते हैं। बल्कि औरो से ज्यादा स्नेहिल जुमले, बिल्कुल छायावादी कविता की तरह कोमल और स्वपनिल। चासनी से पगे शब्दों ने पलभर तो उसे भी भ्रमित कर दिया था। उसे भी लगा था कि व्यर्थ ही वह सुधीर के विषय में गलत सोच रही थी। शायद उसके मन की आशंका ने ही कुछ गलत देख लिया था। मगर लोगों के हटते ही फिर वही सब। एक गुलाम अपना और अपनी नस्ल का निर्णय स्वंय ले। स्वामी को भला कैसे बर्दास्त होता ।
    घर लौटने पर सारी रस्में हुई, जो आम तौर पर हुआ करती है। पार्टी तो इतनी जोरदार थी कि लोग आज भी याद करते हं। मगर इस सबके बीच कॉंटे चुभते रहे। मुन्नी सुधीर के स्वामित्व के लिए चुनौती थी। और वह जानती थी कि अब राह आसान नहीं है। राह में कॉंटे ही कॉटे उग आये है। मगर यह चुनाव उसका अपना था। सो वह चलती रही हर सम्भव कॉंटे बीनती रही। मगर कॉंटे बढ़ते ही जा रहे थे निरन्तर.........फिर भी वह चल रही थी।
    सुधीर के लिए अब उसका वजूद इक मशीन से ज्यादा न था। जब चाहा स्विच आन। वह उसमें ऑंधी सा प्रवेश करता और तूफान सा लौट जाता। सब कुछ उजाडक़र मन आहत होता मगर वह पत्नी थी और पत्नी धर्म निभाना उसका कर्तव्य था सो अपना कर्तव्य पाल रही थी वह।
    समय के साथ सुधीर और कॅंटीले हो चले थे। बात-बात में उलझते, मगर उसने खामोशी को ढाल बना लिया था। उसे विश्वास था कि वक्त के साथ सब ठीक हो जायेगा। मगर। उसकी खामोशी उन्हें और-और आक्रामक और संवेदन शून्य बनाती चली गई थी।
    समय कुछ और बढ चला था। मुन्नी की किलकारियॉं पूरे घर में गूंजती मगर एक कोना अब भी ऐसा था जहां उसकी पहुँच  न थी।
    उस कोने को लेकर अनु अक्सर व्याकुल हो उठती। ऐसा व्यवहार। उसकी कल्पना से परे था। मगर सब प्रत्यक्ष था उसके अपने ही जीवन मे। फिर भी आशा का दामन थामे वह बढ़ रही थी। कदम दर कदम । मगर आज की घटना ने तो उसके हाथ से आशा का दामन झटक लिया था।
    आज के यथार्थ को उसकी आशा भी थाम न सकी । उसकी आशा धूल धूसरित हो गई थी आज। और चारों ओर था भयंकर झझावत और उसमें तिनके सी डोल रही थी वह। क्या करे, दूर-दूर तक कोई अवलम्ब न था। पीड़ा और अवसाद के बीज आज की सुबह ऑंखों मे फिर उभर आयी थी......,।








सुधीर को नाश्ता देकर वह रसोई में व्यक्त थी। आज आया छुटटी पर थी सो जल्दी-जल्दी काम से निपट लेना चाहती थी.....
    पिछले कुछ दिनों से मुन्नी चिड़चिड़ी भी बहुत हो गई थी। जरा देर हुई नहीं कि रो-रोकर बेहाल हो जाती है। तभी झन्न.....की आजाज और रसोई के फर्श पर दूध ही दूध नजर आने लगा।
    ‘‘मियाऊं‘‘ खिडकी पर बैठी बिल्ली शायद उसकी प्रतिकिया की प्रतीक्षा में थी। और अनु की सारी कोशिश नाकाम हुई थी इसी झनाके के साथ । मुन्नी जाग गयी थी। अब तक बिखरते दूध की चिन्ता में उसके कानों में आवाज पहुँच  गया था। मग वह चाह रही थी कि रसोई का बिखरापन समेट ले। तभी सुधीर की आवाज ने दखल दी   ‘‘अनु मेरी टाई कहॉं है ? हॅंइ इस घर में तो कोई चीज मिलती ही नहीं।‘‘
    उसने कपडों के साथ टाई भी निकाली थी। शायद जल्दी में रह गई हो। सुधीर की अवहेलना के परिणाम से वह गाफिल न थी । भागकर कमरे में पहुंची .....
    सारे कमरे में कपड़े ही कपड़े पल भर को मन किया कि वह भी बुक्का फाडक़र रो पड़े। मगर किसके सामने। सो टाई ढूढऩे में लग गई। तभी धम्म की आवाज से कमरा भर उठा था और .....
    पलभर को सब निस्तब्ध हो गयी थी। फिर मुन्नी की लम्बी चीख उभर कर फैल गई थी कमरे में । मुन्नी सुधीर के पैरो के पास पड़ी थी। भय और पीड़ा से चेहरा जर्द हो गया था। मगर सुधीर निरपेक्ष खड़े थे अपनी टाई के इन्तजार में।
    उसने दौडक़र मुन्नी को उठाया। उसकी सॉंस खिंच आयी थी। और इसी क्षण सुधीर से ऑंख मिलते ही अब तक संचित राख में दबी चिंगारियॉं भभक उठी थी। जिसकी लपट ने पलभर सुधीर को घेरा जरूर, मगर अहंकार ने उसे ठेल दिया था और ब्रीफकेस उठाकर बढ़ चले थे गैरेज की ओर ।
    और वह कठुआयी सी देख रही थी उसे। कोई इंसान इतना पत्थर भी हो सकता है। उसने सोचा भी न था। फिर सुधीर तो पिता थे, उसके जन्म दाता। हाथ मुन्नी की पीड़ा सहला रहे थे मगर मन में था तूफान और उसमें तैरती लम्बी-लम्बी परछाइयॉं।
कार के स्टार्ट होने से वह सजग हुई। सुधीर जा चुके थे। मुन्नी देर तक हिचकियॉं भरती रही, फिर सहज हो गई । मगर अनु आज सहज न थी, उसने सुधीर से झूठ बोलने की गलती की थी। मगर इसकी सजा मुन्नी को ?........फिर उसके गलती भी क्या थी। यह कि एक जीव हत्या में उसने हाथ नहीं दिया था। हॉं यही उसका अपराध था। वह भूल गई थी कि.......
उसने देखा मुन्नी नीद में भी भय और पीड़ा से मुक्त न थी। उसका मन कराह उठा था। ऑखे छलछला आई। इस नन्ही जान का क्या दोष है भला। यही कि उसने स्त्री जन्म पाया है तो क्या स्त्रियॉं सिर्फ पीड़ा सहने के लिए हैं ? यही उनकी नियति है? हॉं युगो युगों से यही तो होता चला आया है। पीड़ा ने ही आकार ग्रहण किया और लोगो ने उसे नारी नाम दे दिया । उसका मन बहुत पीछे चला गया। बचपन में नानी गाया करती थी:-

तिरिया जनम झनि दे हो विधाता।
तिरिया जनम झनि दे   
    तिरिया जनम कॉंटो की सेजिया।
    सोवत चुभ-चुभ जाये हो विधातां।

    बचपन में वह कहॉं समझ पायी थी कि इस गति के साथ नानी की ऑखें क्यों। भर आती है। मगर आज इस पीड़ा में गोते लगा रही है वह आसू ढलते रहे थे मन भीगता रहा और दर्द गहराता रहा।
    यह कैसी पीड़ा है जिसका स्त्रोत आज तक नहीं सूखा। क्या कभी नहीं सूखेगा यह । सोच ने नया मोड़ लिया। उसकी बेटी ने भी तो तिरिया जनम पाया है तो क्या उसकी लाडली भी सारा जीवन यूं ही पीड़ाओं में जीयेगी ?...........
    जीवन भर सजा पायेगी, वह भी उस गलती के लिए जो उसने की ही नही । नहीं। उसके जीवन से कॉंटो को निकाल फेकेगी वह। चाहे उसके साथ लहूलुहान क्यों न हो जाय। वह लड़ेगी.... अपनी लड़ाई, अपनी बेटी की लड़ाई और अपने आने वाली नस्ल की लड़ाई । अपनी सामर्थ्य  भर लड़ेगी ।
    ‘‘मगर वह सामर्थ्य है कहॉं ? मन ने ललकारा‘‘।
    सामथ्र्य जुटाऊगी मैं। मैं जानती हूं कि ऑधी में खडे होने के लिए पैरों में शक्ति चाहिए। मै भरूगी वह शक्ति अपने कमजोर पैरो में। और धीरे-धीरे उसकी ऑंखे बन्द हो गई थी।
    वह आज पहली बार दुआ मॉंग रही थी अपने लिए, सिर्फ अपने लिए। आज वह मॉंग रही थी- जन्म जन्मान्तर तक तिरिया जनम। युगों युगों से बाये कॉंटे निकालने के लिए जनम पर्याप्त न था। तो वह बार-बार तिरिया जनम की कामना कर रही थी और धीरे -धीरे दर्द का कुहरा छॅंटने लगा था।
    सुधीर देर रात क्लब से लौटे तो पाया कि आज स्टडी रूप की लाइट जल रही है। भीतर झॉंका । वहीं उनके टेबल के करीब एक टेबल और लग गयी थी। टेबल कैम्प की रोशनी बहुत कुछ कह रहे थे। अनु अपने कार्य छेत्र   के लिए तैयार हो रही थी।

Sunday, March 13, 2011

दीवार



लड़की चाहती है ऐसा घर
                            जिसमे हों बड़ी बड़ी खिड़कियाँ
जिनसे होकर आ सके ताजी हवा और ढेर सी रौशनी,
                             उस घर में हो एक बुलंद दरवाजा,
जिससे होकर वह जा सके बाहर





मगर घर में तो हैं सिर्फ दीवारें,
                        ऊँची ऊँची दीवारें,
लड़की देख रही है दीवारें ,

Wednesday, March 9, 2011

नींव का पत्थर


बला और अबला 
एक वर्ण ने बदल दिए अर्थ 
अंगूठी की खोज  में भटकती रही शकुन्तला 
शापित मातृत्व का पर्याय बनी कुंती, होती रही लांछित 
पाषाणी अहम् में पिस गई गौतमी 
और भी कितनी कितनी कथाएं,
न जाने कितनी लछमन रेखाएं 
खिचीं गई है हमारे लिए
 मन पूछता है मुझसे क्या इसी  नींव पर 
रखोगी अपने भविष्य की ईंट

Tuesday, March 8, 2011

औरत

औरत 

मन पूछता है अक्सर 
कि औरत क्या है ?
क्या है उसकी अहमियत ?
आँखों में उभरता है मील का पत्थर 
जो रहता है थिर 
फिर भी उसके सहारे तय होती है मंजिलें 
हाँ मील का पत्थर है 
औरत

Monday, March 7, 2011

महिला दिवस और हम

 
आज महिला दिवस है और आज से ही मै अपने इस नए काम का आगाज़ कर रही हूँ . आशा है मेरी इस कोशिश को आप  सभी सराहेंगे.  
दैनिक भास्कर ने महिलाओ को अलग अलग फ़ील्ड की महिलाओं को सम्मानित किया  

दैनिक भास्कर सम्मानित महिलाएं  मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ

राज्य स्तरीय वोमेन अचीवर ऑफ़ द इयर  का सम्मान लेती डॉ. उर्मिला शुक्ल

महिला दिवस हम सब को मुबारक हो