Tuesday, August 30, 2011

विश्वास

विश्वास चादर तो नहीं
 जिसे ओढ़कर 
 बटोरी जाती है 
 बिखरी ऊष्मा ||  
   विश्वास का ताप तो
  पनपता है
 मन की गहराइयों में 
 जिससे टकराकर
   लौट जाती हैं
 सर्द हवाएं  |
   और विश्वास के बिखरते ही
     मन में उगने लगता है
 हिमालय |
  जिसे छूकर
   जम जाती है
     सारी उष्मा |
    छा  जाती है धुंध
 जिसके आर -पार देखना
  हो जाता है मुश्किल |
  बहुत सालता है
   विश्वास का बिखरना |
 

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