बाजार से लौट कर गेट खोला ,तो भीतर तीन चार पत्र पड़े थे. दो लिफाफे और एक पोस्ट कार्ड। थकान के बावज़ूद पोस्ट कार्ड ने मेरा ध्यान खींचा , मैंने देखा उसके कोने पर हल्दी से बना निशान था , यानि ये विवाह का निमंत्रण है।' मैंने देखा बस तीन वाक्य थे-
बिटिया को शुभ आशीर्वाद
बिटिया तुम्हारे भाई का ब्याह है। जरुर आना। इस खत को ही निमंत्रण समझना।
अभागन माँ ! सचमुच ! कुछ भी तो नहीं मिला उन्हें ! पत्नी बनकर भी वो अधिकार , वो सम्मान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था ! उनके प्रेम और समर्पण के बदले मिली तो बस घृणा और उपेक्षा ! परिवार और समाज सबसे । ऐसा क्या किया था उन्होंने ? यही कि. अपने शराबी और ऐय्याश पति को छोड़ कर ताऊ जी का हाथ थाम लिया था। क्या ये अपराध था ? हाँ ! एक औरत अपना फैसला खुद ले ले ? और वो भी ऐसा फैसला जो समाज के लिये चुनौती बन सो सजा तो मिलनी ही थी। इसीलिये उन्हें मिली थी सिर्फ नकार समाज से और परिवार से भी । उनके विवाह को भी कहाँ माना था लोगो ने । तभी तो उन्हें उढ़री ' कहने लगे थे। उढ़री यानि भागकर लायी गई ओरत। हलाकि वे भागकर नहीं आई थीं बाकायदा कोर्ट मैरिज़ थी उनकी । मगर इस गाँव के लोगों के लिये उस विवाह का कोई महत्व् नहीं था। सो वे उढ़री शब्द के दंश को झेलने को विवश थीं। मगर ताऊ जी से कोई कुछ न कहता ! अगर ये अपराध था तो अपराधी तो वे भी थे ! मगर ! फिर भी सबसे बहुत प्रेम था उन्हें ! और मुझ पर तो उनका विशेष स्नेह था। मुझे भी वे बहुत अच्छी लगती था। मगर अम्मा को तो उनसे विशेष चिढ थी। जब भी मैं उनके पास होती, अम्मा मुझे वहाँ से ले आतीं। और कहतीं -
" तू वोहके पास न जाया कर"
"काहे "
"ऊ अच्छी औरत नाही है "
" का ऊ गंदी हैं ? पर ऊ त बहुत सुंदर हैं। तुमसे भी सुंदर । " और भोलेपन से कही मेरी बात से वे बौखला जाती और मुझे खूब मरतीं । मगर मैंने न उनके पास जाना छोड़ा और न ही अम्मा ने पीटना।
फिर विजय का जन्म हुआ, वे बहुत खुश थीं और ताऊ जी भ. मगर परिवार, खासकर अम्मा और कंटीली हो गई थीं। जब तब उलझ जातीं। उनके लड़के का हक जो बँट गया था।
मेरा विवाह था। सुहागिनें बुलाई गई थीं. गाँव भर की औरतें वहाँ थीं , अगर कोई नहीं था,तो बड़की अम्मा। होतीं भी कैसे ? अपशकुन जो हो जाता। सो विवाह की किसी भी रस्म में उन्हें शामिल नहीं किया गया। विदाई का समय था सारा गाँव एकत्रित था मगर वे वहाँ नहीं थीं और मेरा मन वयाकुल था उनसे मिलने को । मैं उनके कमरे की और बढ़ ही रही थी कि -
"बौरी भई हो का ?"अम्मा मेरे सामने थीं उनकी आँखों से जैसे अंगारे बरस रहे थे। मैं लौट आयी मगर मैंने देखा दरवाज़े की झिरी से झाँकती दो , आँखें कितनी व्यकुलता थी उनमें।
मैं विदा हो गई। बड़की अम्मा की परछाई भी मुझ नहीं पड़ी. मगर क्या मैं सुखी हूँ ? हाँ क्या कमी है मुझे आलिशान घर , गहनों से भरा लाकर। एक औरत को और क्या चाहिए ?इन्हीं सोचों में समय का पता ही नहीं चला। विकास आ चुके थे। रसोई में जाकर चाय बनाई। वापस आई तो वे अखबारी दुनिया में थे। कोई और दिन होता , तो मैं चाय रखकर चली जाती मगर आज -
"सुनिये "
-----------देर तक कोई जवाब नहीं
"सुनिये " अब कहो भी। मैं बहरा तो हूँ नहीं। ये कोई नई बात न थी। मन कसैला हो उठा. मन में आया कि …मगर ..मैंने पत्र उनके आगे रख दिया कुछ देर तक फिर वही ख़ामोशी " तुम चली जाओ। मुझे फुरसत नहीं हैं। " मुझे मालूम था जवाब यही होगा। हमेशा यही होता है। सारे समाज कट गई हूँ मैं । अकेले जाकर लोगों का निशाना बनना ? हिममत अब मुझमें नहीं । मगर इस बार सवाल बड़की अम्मा का है सो ।
सुबह की बस थी । ठसाठस भरी थी। समय हो चूका था , फिर भी कंडकटर सवारियों को हाँक लगाये जा रहा था। बहुत देर बाद बस चली, तो राहत मिली। मन फिर गाँव जा पहुँचा - विजय अभी किशोर ही था कि ताऊ जी चल बसे। संयुक्त परिवार था, सो सारी संपत्ति परिवार ने हथिया ली। उनके हाथ आई थी चौपाल । अब वे दूसरों का काम करके गुजरा करतीं। फिर भी कोशिश की कि विजय पढ़ जाये, कुछ बन जाये , मगर! वो शराब और गाँजे में डूबता चला गया। फिर उसपर भी परिवार का रंग चढ़ गया ! बड़की अम्मा दुश्मन थीं उसकी। ' तब किशोरावस्था थी नासमझ था , शायद अब बदल गया. होगा ब्याह जो है।' सोचा मैंने।
शाम होते होते गाँव आ गया । रिश्ते की भाभी, चाची, सबने मुझे घेर लिया था। भाभी की नजरें मेरे कंगन पर अटक थीं कि "चलो हटो हमरी बिटिया को नजर मत लगाव।अब कउनो अइसे वइसे घर म तो ब्याहा नहीं है न। दमाद तो हीरा है हीरा। "अम्मा ने अपनी तारीफ के साथ उन पर कटाक्ष किया था। " हाँ चाची! फिर हीरा के लाल भी होते तो ?" भाभी उनकी ने दुखती रग मसल दी थी । उन्हें बर्दास्त न था कि कोई विकास कि ओर ऊँगली उठाये । और कोई समय होता तो ? मगर आज ? सारा आँगन औरतों से भरा था । सो। मैंने देखा, बड़की अम्मा आज भी वहाँ नहीं थीं ! आज तो ? औरतों से घिरा विजय हँसी मजाक में वयस्त था ।अब तेल चढ़ रहा था। " अम्मा ! बड़की अम्मा कहाँ हैं "
" होइहें चौपार म। "
क्यों यहाँ क्यों नहीं आईं ?
"बऊरा गयी हो का ? एक तव उढ़री , ऊपर से बेवा । असगुन करय क हय का ? पढा लिखा सब बेकार। " वहाँ कुछ कहना बेकार था। सो मैं बाहर आ गयी और मेरे कदम् चौपाल की ओर
बढ़ चले। बड़की अम्मा अँधेरे कोने में लेटी थीं। उनकी साँसें बता रही थीं कि वो रो रही हैं। मेरी आहट पा उठ बैठीं "अरे बिटिया तुम कब आयीं ?" वे सामान्य होने की कोशिश कर रही थीं।
"अम्मा आप यहाँ ?"
बिटिया हमार उहाँ का काम। बस विजय सुखी रह्य और का चाही। "
"अम्मा आप भी ? आप तो अलग सोच …………… फिर अब ?"
"हम टूट गयी हैं। जब अपना बच्चा ? " कहते हुये वो फफक पड़ी थीं।ये कैसी व्य्वस्था है? जहाँ एक माँ अपशकुनी हो जाती है? तभी वहाँ अम्मा आ गयीं " अरे दिया तव बार लेतिव लरिका का
बियाह है। कोई मरा नही है। "
" अम्मा कुछ तो रहम करो !" मैरी आवाज़ तीखी हो उठी थी । उन्होंने मुझे घूर कर देखा था। और मैं चल पड़ी थीउनके साथ. पर किसी रस्म में मन नहीं लगा। और विवाह के दूसरे दिन ही लौट आयी थीं।
फिर गांव जाना हुआ नहीं। बस उनकी खबरें आती रहीं कि अब वे घर से बाहर जानवरों के मड़हा में रहती हैं । फिर खबरआयी कि वे गाँव से बाहर महुवारी में रहने लगीं हैं! उनका मानसिक संतुलन ठीक नहीं। अब मुझसे रहा नहीं गया। गाँव गयी. और देखा महुवारी में, पीपल के पेड़ के नीचे खड़ी एक औरत, कौवों पर पत्थर फेंक रही थीं। वो बड़की अम्मा थीं मैं उनकी ओर बढ़ी तो वे भागकर महुवारी छिपीं ,मैंने बहुत ढूढ़ा पर वे नहीं मिली। अँधेरा हो गया था. सो मुझे गाँव जाना पड़ा।
वहाँ सब खुश थे. लगा ही नहीं कि ? मैंने भी कुछ नहीं पूछा। मुझे सुबह का इंतजार था।सुबह होते ही मैं महुवारी गई. छुपने हर जगह देखा । मगर वे कहीं नहीं थीं ! हारकर मैं लौट आई। मगर इस बार मैं अकेली नहीं मेरे साथ थी कौवा उड़ाती एक छवि ।
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