विश्वास चादर तो नहीं
जिसे ओढ़कर
बटोरी जाती है
बिखरी ऊष्मा ||
विश्वास का ताप तो
पनपता है
मन की गहराइयों में
जिससे टकराकर
लौट जाती हैं
सर्द हवाएं |
और विश्वास के बिखरते ही
मन में उगने लगता है
हिमालय |
जिसे छूकर
जम जाती है
सारी उष्मा |
छा जाती है धुंध
जिसके आर -पार देखना
हो जाता है मुश्किल |
बहुत सालता है
विश्वास का बिखरना |
जिसे ओढ़कर
बटोरी जाती है
बिखरी ऊष्मा ||
विश्वास का ताप तो
पनपता है
मन की गहराइयों में
जिससे टकराकर
लौट जाती हैं
सर्द हवाएं |
और विश्वास के बिखरते ही
मन में उगने लगता है
हिमालय |
जिसे छूकर
जम जाती है
सारी उष्मा |
छा जाती है धुंध
जिसके आर -पार देखना
हो जाता है मुश्किल |
बहुत सालता है
विश्वास का बिखरना |
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