माँ अब बुनती नहीं स्वेटर
सलाई से फिसल जाते हैं फंदे
आँखों में ठहर गई है बिटिया
कल तक जो पुतली थी आँखों की
मोतिया सी सालती है दिन रात
कितनी मंहगी है हल्दी की
एक गांठ
सलाई से फिसल जाते हैं फंदे
आँखों में ठहर गई है बिटिया
कल तक जो पुतली थी आँखों की
मोतिया सी सालती है दिन रात
मगर मंहगाई के साथ चढ़ता योवन
अनभिग्य है बाजार से कितनी मंहगी है हल्दी की
एक गांठ
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